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नवंबर में कब मनाई जाएगी गणाधिप संकष्टी चतुर्थी? ये है शुभ मुहूर्त और पूजा विधि

Updated on Sunday, November 10, 2024 09:18 AM IST

चण्डीगढ़। हर माह के कृष्ण और शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि भगवान गणेश को समर्पित है। कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि को गणाधिप संकष्टी चतुर्थी  के नाम से जाना जाता है। इस शुभ असवर पर भगवान गणेश की उपासना की जाती है। साथ ही जीवन के संकटों को दूर करने के लिए व्रत भी किया जाता है। मान्यता है कि गणाधिप संकष्टी चतुर्थी व्रत करने से जातक को गणपति बप्पा की कृपा प्राप्त होती है। आइए लेख में हम आपको बताएंगे कि कार्तिक माह में मनाई जाने वाली गणाधिप संकष्टी चतुर्थी की डेट, शुभ मुहूर्त और पूजा विधि के बारे में।

गणाधिप संकष्टी 2024 चतुर्थी मुहूर्त

कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि 18 नवंबर, शाम 06 बजकर 55 मिनट से शुरू हो रही है, जो अगले दिन यानी 19 नवंबर दोपहर को शाम 05 बजकर 28 मिनट पर समाप्त होगी। ऐसे में गणाधिप संकष्टी चतुर्थी का व्रत 18 नवंबर को किया जाएगा। इस दिन शाम के समय चंद्रमा को अर्घ्य दिया जाता है। ऐसे में चन्द्रोदय शाम 07 बजकर 34 मिनट पर होगा।

  • ब्रह्म मुहूर्त - सुबह 05 बजे से 05 बजकर 53 मिनट तक
  • विजय मुहूर्त - दोपहर 01 बजकर 53 मिनट से 02 बजकर 35 मिनट तक
  • गोधूलि मुहूर्त - शाम 05 बजकर 26 मिनट से 05 बजकर 53 मिनट तक

अशुभ समय

  • राहुकाल -सुबह 08 बजकर 06 मिनट से 09 बजकर 26 मिनट तक।
  • गुलिक काल -सुबह 01 बजकर 29 मिनट से 02 बजकर 46 मिनट तक।

गणाधिप संकष्टी चतुर्थी पूजा विधि

गणाधिप संकष्टी चतुर्थी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठें और स्नान करने के बाद मंदिर की सफाई करें। इसके बाद सूर्य देव को अर्घ्य दें। एक चौकी पर कपड़ा बिछाकर भगवान गणेश जी की मूर्ति स्थापित करें। इसके बाद उन्हें पुष्प, गंध और दीप अर्पित करें। दीपक जलाकर आरती करें और मंत्रों-गणेश चालीसा का पाठ करें। गणेश जी को प्रिय मोदक या तिल का लड्डूओं का भोग लगाएं। संध्या के समय चंद्रमा को अर्घ्य देकर व्रत का पारण करें। इस दिन दान करना शुभ माना जाता है।

गणेश मंत्र

ऊँ वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ ।

निर्विघ्नं कुरू मे देव, सर्व कार्येषु सर्वदा ॥

ॐ एकदंताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात् ॥

ॐ महाकर्णाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात् ॥

ॐ गजाननाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंती प्रचोदयात् ॥

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